दक्षिण में सबरीमाला मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर उठा आंदोलन थमने का नाम नहीं ले रहा है। लोग इसे महिलाओं के अस्तित्व पर सवाल उठा रहे हैं। आंदोलनकारी रजस्वला औरतों को मन्दिर में प्रवेश पर रोक का विरोध कर रहे हैं।
बात यहाँ अस्तित्व की नहीं है।स्वच्छता और सुचिता की है। नवरात्र में भी कन्यापूजन का विधान है कन्या यानी जो अबतक रजस्वला नहीं हुई हो। जिन लड़कियों की माहवारी शुरू हो जाती उन्हें कन्यापूजन में नहीं बिठाया जाता। जहां तक सबरीमाला का सवाल है तो ये उसकी आस्था का प्रश्न है। स्वामी अयप्पा अगर ब्रह्मचारी हैं तो महिलाओं के वहां प्रवेश की आवश्यकता ही नहीं। जैसे हनुमान जी को महिलाएं स्पर्श कर पूजा नहीं करती। शालिग्राम को भी महिलाएं नहीं छूती। अपने अपने धर्म और पन्थो की अपनी मर्यादा है। जैसे मुस्लिम महिलाओं का मस्जिद में प्रवेश वर्जित है वहां तो कोई विरोध नहीं होता। बात चाहे तीन तलाक की हो या फतवे जारी करने की सुप्रीम कोर्ट भी मुस्लिम कानूनी मामलों में हस्तक्षेप करने से मना कर देती है। कहती है कि यह उनके धर्म का मसला है तो फिर सबरीमाला को लेकर इतना विवाद क्यों?हां तो यहां तो कामख्या मन्दिर में योनि की पूजा होती है और रजस्वला के दिनों निकले रक्तनुमा स्राव को लोग कपड़ों में पोंछ कर बड़ी श्रद्धा के साथ अपने पास रखतें हैं। आषाढ़ माह में धरती के रजस्वला होने पर तीन दिन तक हल नहीं चलाया जाता ताकि धरती माता को तकलीफ न हो। बात यहां सुचिता और शारीरिक स्वच्छता व स्वास्थ्य की भी है।अमूमन हर औरत खुद माहवारी में पूजा पाठ छोड़ देती है क्योंकि उन्हें खुद स्वच्छ महसूस नहीं होता। दिल से कोई भी औरत कह दे कि माहवारी के दौरान पूजा पाठ करना चाहती हैं? पूजा पाठ के लिए तनमन दोनों का स्वच्छ होना आवश्यक होता है।कोई भी औरत उन दिनों खुद को स्वस्थ और स्वच्छ नही महसूस करती। और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी देखें तो माहवारी के दिनों में महिलाओं को सबसे अधिक आराम की जरूरत होती है और उन्हें संक्रमण का खतरा अधिक होता है। यही नहीं उस दौरान सहवास भी प्रतिबंधित होता क्योंकि बीमारियों का खतरा होता हस। । इसलिए प्राचीन काल में उन्हें सभी घरेलू कार्यों से मुक्त रखा गया ताकि वो आराम कर सकें। आखिर इसी दौरान मन्दिर में प्रवेश का हठ क्यूँ?उसके बाद तो कोई रोक नहीं है।
पंकज प्रियम
भले ही महिलाओं ऐसे भगवान् की जरूरत न हो जो महिलाओं को अपनी पूजा का भी अधिकार नहीं देता पर उन्हें ऐसे इंसानों की जरूरत है जो यह समझ सकें कि किसी को महज स्त्री होने के नाते किसी मंदिर मस्जिद , गुरूद्वारे में जाने से रोकने का लैंगिक भेदभाव उस मातृ शक्ति का अपमान है , ईश्वर को भी जन्म लेने के लिए जिसकी सहायता की जरूरत होती है ।
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