Friday, July 20, 2018

भूख और अंगूठा

भुख और अंगूठा

आज बुधिया के घर बड़े बड़े अफसरों की भीड़ लगी थी। नेताओं का जमावड़ा था। कोई एक बोरी चावल लेकर आया था तो कोई गेंहू भर टोकरी।कोई उसे दो हजार के नोट दे रहा था तो कोई बाबू चेक थमा रहा था। वह पथराई आंखों से एकटक चुपचाप सबको देखे जा रहा था। गोद में उसकी बेटी सुलमी की लाश पड़ी थी जो कल रात भात भात कहते मर गयी । कई दिनों से घर में अनाज का एक दाना भी नहीं था और पास में फूटी कौड़ी तक नहीं। बीमारी की वजह से वह काम पर भी नहीं जा पा रहा था। 

'काश!आज सुगना जिंदा होती तो कहीं से भी जुगाड़ कर लेती और बेटी को मरने नहीं देती। सच ही तो सब कहते हैं कि घर की लक्ष्मी के जाते ही घर घर नहीं श्मशान हो जाता है।" 

अरे!सरकार एक रुपये किलो अनाज दे रही है क्या तुम्हारे  पास कार्ड नहीं हैं? एक बाबू ने झिड़की लगा दी।

'कार्ड!

लाल कार्ड घर के कोने में पड़ा मानो बुधिया को चिढ़ा रहा था। 

 करीब एक सप्ताह से वह राशन दुकान का चक्कर लगाकर लगाकर थक चुका था। बीमार शरीर को मानो पैरों पर ढोकर ले जाता था। आसमान से आग बरसाते सूर्य देव को भी कहाँ तरस आती थी। लगता था रास्ते में ही टें बोल जाएगा। घर से करीब कोस भर दूर था डीलर बाबू का दुकान। जाते जाते आधा प्राण तो उड़ जाता था। राशन दुकान पंहुंच कर निढाल पड़ जाता था । ई तो डीलर की बूढ़ी मांय है जो पानी गुड़ पूछती थी। पुराने बुजुर्ग ही तो थोड़ा मान सत्कार को बचाकर रखे हैं। नहीं तो आज के लोग ! दुवार पर आए मेहमानों  की आवभगत तो दूर बैठने को भी नहीं पूछते। 

 'ए बाबू! आज देख न मशीनवा काम करतो की नैय।' घर मे एक छटाक भी अनाज नाय हो।"बुधिया बड़ी कातर भाव से डीलर की मिन्नत कर रही थी।

डीलर ने कई बार कोशिश की लेकिन बायोमीट्रिक मशीन बुधिया के अँगूठे को पढ़ नहीं पा रहा था। पढ़ता भी कैसे? मजदूरी करते करते बुधिया की उंगलियां घिसकर सपाट हो गयी थी, मानो भाग्य की लकीर ही मिट गई थी। 

'नहीं !नहीं काम कर रहा है मशीन। दूसरे दिन आना। जाओ अभी बहुत भीड़ है।"डीलर ने झिड़कते हुए कहा ।

"ए डीलर बाबू! जब मशीनवा पढतो तब,अभी एक किलो चावर दे दे। खाय खतिर कुछ तो दे। सुलमी बीमार है भूखे भात भात कर रहलो" बुधिया ने रोते हुए कहा।

"तो हम क्या करें। बिना मशीन के हम अनाज नहीं दे सकते। जाओ यहां से।"डीलर ने धकियाते हुए दुकान से बाहर कर दिया।

आज बिल्कुल टूट गया था बुधिया। थकहार कर वापस खाली हाथ घर की ओर चल पड़ा। कदम उठाते न उठ रहे थे। खुद को घसीटते हुए वह घर की ओर चल पड़ा। पिछले एक सप्ताह से वह डीलर के यहां चक्कर लगा रहा था लेकिन हरबार निराशा ही हाथ लगी। मशीन उसका अंगूठा नहीं पढ़ पा रही थी। वह डीलर बाबू की मिन्नतें करता कि एक किलो ही अनाज दे दो लेकिन वह झिड़क कर भगा देता। 

"बापू !भात ....भात... बहुत जोर से भूख लगल हो। नाय बचबो। घर घुसते ही सुलमी कि आवाज सीधे दिल को भेद रही थी। बुधिया सुलमी को गोद मे लेकर फूट फूट कर रो पड़ा। भूख के मारे तो उसकी भी जान निकल रही थी लेकिन  बेटी की भूख के आगे उसकी सारी भूख मर चुकी थी। सुलमी रात भर भात.. भात जपती रही। बुधिया की कब आंख लग गयी पता ही नहीं चला। 

सुबह आँख खुली तो आँखे फ़टी रह गयी। सुलमी निष्प्राण होकर जमीन पर पड़ी थी। बुधिया की अनुभवी आंखों ने तुरंत ताड़ लिया की सुलमी अब इस दुनिया में नहीं रही। वह बेटी से लिपटकर दहाड़ मारकर रो पड़ा।

        सुबह होते ही सुलमी के मौत की खबर आग की तरह फैल गयी। गांव के लोग तमाशा देखने पहुंच गए। आज सभी ढाढ़स देने लगे'अरे! होनी को कौन टार सकता है। बेचारी भूख से मर गयी। किसी ने अखबार वाले को खबर कर दिया वे कैमरा लेकर पहुंच गए। देखते देखते मामले ने तूल पकड़ लिया।  बड़े बड़े अधिकारी पहुंचने लगे। उसके घर अनाज और पैसों की बरसात होने लगी। डॉक्टर साहब ने जांच पड़ताल कर कह दिया कि सुलमी की मौत भूख से नहीं बीमारी के कारण हुई हैं। बड़े बाबुओं ने कागज पर ठेपा भी लगवा लिया। जो अंगूठा मशीन नहीं पढ़ पा रही थी वो बाबुओं के काम आ गयी। बुधिया कभी अनाजों के ढेर को देखता कभी सुलमी की लाश को और कभी आने अंगूठे को।

©पंकज भूषण पाठक"प्रियम"

गिरिडीह, झारखंड