Monday, January 21, 2019

रस


रस (काव्य शास्त्र)

रस

श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है। रस से जिस भाव की अनुभूति होती है वह रस का स्थायी भाव होता है। रसछंद औरअलंकार - काव्य रचना के आवश्यक अवयव हैं।

रस का शाब्दिक अर्थ है - निचोड़। काव्य में जो आनन्द आता है वह ही काव्य का रस है। काव्य में आने वाला आनन्द अर्थात् रस लौकिक न होकर अलौकिक होता है। रस काव्यकी आत्मा है। संस्कृत में कहा गया है कि "रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्" अर्थात् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है।

रस अन्त:करण की वह शक्ति है, जिसके कारण इन्द्रियाँ अपना कार्य करती हैं, मन कल्पना करता है, स्वप्न की स्मृति रहती है। रस आनंद रूप है और यही आनंद विशाल का, विराट का अनुभव भी है। यही आनंद अन्य सभी अनुभवों का अतिक्रमण भी है। आदमी इन्द्रियों पर संयम करता है, तो विषयों से अपने आप हट जाता है। परंतु उन विषयों के प्रति लगाव नहीं छूटता। रस का प्रयोग सार तत्त्व के अर्थ में चरक, सुश्रुत में मिलता है। दूसरे अर्थ में, अवयव तत्त्व के रूप में मिलता है। सब कुछ नष्ट हो जाय, व्यर्थ हो जाय पर जो भाव रूप तथा वस्तु रूप में बचा रहे, वही रस है। रस के रूप में जिसकी निष्पत्ति होती है, वह भाव ही है। जब रस बन जाता है, तो भाव नहीं रहता। केवल रस रहता है। उसकी भावता अपना रूपांतर कर लेती है। रस अपूर्व की उत्पत्ति है। नाट्य की प्रस्तुति में सब कुछ पहले से दिया रहता है, ज्ञात रहता है, सुना हुआ या देखा हुआ होता है। इसके बावजूद कुछ नया अनुभव मिलता है। वह अनुभव दूसरे अनुभवों को पीछे छोड़ देता है। अकेले एक शिखर पर पहुँचा देता है। रस का यह अपूर्व रूप अप्रमेय और अनिर्वचनीय है।[1]

विभिन्न सन्दर्भों में रस का अर्थसंपादित करें

एक प्रसिद्ध सूक्त है- रसौ वै स:। अर्थात् वह परमात्मा ही रस रूप आनन्द है। 'कुमारसम्भव' में पानी, तरल और द्रव के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग हुआ है। 'मनुस्मृति' मदिरा के लिए रस शब्द का प्रयोग करती है। मात्रा, खुराक और घूंट के अर्थ में रस शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'वैशेषिक दर्शन' में चौबीस गुणों में एक गुण का नाम रस है। रस छह माने गए हैं- कटु, अम्ल, मधुर, लवण, तिक्त और कषाय। स्वाद, रूचि और इच्छा के अर्थ में भी कालिदास रस शब्द का प्रयोग करते हैं। प्रेम की अनुभूति के लिए 'कुमारसम्भव' में रस शब्द का प्रयोग हुआ है। 'रघुवंश', आनन्द और प्रसन्नता के अर्थ में रस शब्द काम में लेता है। 'काव्यशास्त्र' में किसी कविता की भावभूमि को रस कहते हैं। रसपूर्ण वाक्य को काव्य कहते हैं।

भर्तृहरि सार, तत्व और सर्वोत्तम भाग के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग करते हैं। 'आयुर्वेद' में शरीर के संघटक तत्वों के लिए 'रस' शब्द प्रयुक्त हुआ है। सप्तधातुओं को भी रस कहते हैं।पारे को रसेश्वर अथवा रसराज कहा है। पारसमणि को रसरत्न कहते हैं। मान्यता है कि पारसमणि के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है। रसज्ञाता को रसग्रह कहा गया है। 'उत्तररामचरित' में इसके लिए रसज्ञ शब्द प्रयुक्त हुआ है।भर्तृहरि काव्यमर्मज्ञ को रससिद्ध कहते हैं। 'साहित्यदर्पण' प्रत्यक्षीकरण और गुणागुण विवेचन के अर्थ में रस परीक्षा शब्द का प्रयोग करता है। नाटक के अर्थ में 'रसप्रबन्ध' शब्द प्रयुक्त हुआ है।

रस के प्रकार

पारिभाषिक शब्दावली

परिचय

रस की उत्पत्ति

रसों का परस्पर विरोध

रस की आस्वादनीयता

रसों का राजा कौन है?

शृंगार रस

हास्य रस

शान्त रस

करुण रस

रौद्र रस

वीर रस

अद्भुत रस

वीभत्स रस

भयानक रस

रसों का अन्तर्भाव आदि

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