छंद
संस्कृत वाङ्मय में सामान्यतः लय को बताने के लिये छन्दशब्द का प्रयोग किया गया है।[1] विशिष्ट अर्थों या गीत में वर्णों की संख्या और स्थान से सम्बंधित नियमों को छ्न्दकहते हैं जिनसे काव्य में लय और रंजकता आती है। छोटी-बड़ी ध्वनियां, लघु-गुरु उच्चारणों के क्रमों में, मात्रा बताती हैं और जब किसी काव्य रचना में ये एक व्यवस्था के साथ सामंजस्य प्राप्त करती हैं तब उसे एक शास्त्रीय नाम दे दिया जाता है और लघु-गुरु मात्राओं के अनुसार वर्णों की यह व्यवस्था एक विशिष्ट नाम वाला छन्द कहलाने लगती है, जैसेचौपाई, दोहा, आर्या, इन्द्र्वज्रा, गायत्री छन्द इत्यादि। इस प्रकार की व्यवस्था में मात्रा अथवा वर्णों की संख्या, विराम, गति, लय तथा तुक आदि के नियमों को भी निर्धारित किया गया है जिनका पालन कवि को करना होता है। इस दूसरे अर्थ में यह अंग्रेजी के 'मीटर'[2] अथवा उर्दू-फ़ारसी के 'रुक़न' (अराकान) के समकक्ष है। हिन्दी साहित्य में भी छन्द के इन नियमों का पालन करते हुए काव्यरचना की जाती थी, यानि किसी न किसी छन्द में होती थीं। विश्व की अन्य भाषाओँ में भी परम्परागत रूप से कविता के लिये छन्द के नियम होते हैं।
छन्दों की रचना और गुण-अवगुण के अध्ययन को छन्दशास्त्र कहते हैं। चूँकि, आचार्य पिंगल द्वारा रचित 'छन्दःशास्त्र' सबसे प्राचीन उपलब्ध ग्रन्थ है जिसे 'पिंगलशास्त्र' भी कहा जाता है।[3] यदि गद्य की कसौटी ‘व्याकरण’ है तो कविता की कसौटी ‘छन्दशास्त्र’ है। पद्यरचना का समुचित ज्ञान छन्दशास्त्र की जानकारी के बिना नहीं होता। काव्य और छन्द के प्रारम्भ में ‘अगण’ अर्थात ‘अशुभ गण’ नहीं आना चाहिए।
इतिहाससंपादित करें
प्राचीन काल के ग्रंथों में संस्कृत में कई प्रकार के छन्द मिलते हैं जो वैदिक काल के जितने प्राचीन हैं। वेद के सूक्त भी छन्दबद्ध हैं। पिंगल द्वारा रचित छन्दशास्त्र इस विषय का मूल ग्रन्थ है। छन्द पर चर्चा सर्वप्रथम ऋग्वेद में हुई है।
शब्दार्थसंपादित करें
वाक्य में प्रयुक्त अक्षरों की संख्या एवं क्रम, मात्रा-गणना तथा यति-गति से सम्बद्ध विशिष्ट नियमों से नियोजित पद्यरचना ‘'छन्द'’ कहलाती है। छन्दस् शब्द 'छद' धातु से बना है। इसका धातुगत व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है - 'जो अपनी इच्छा से चलता है'। इसी मूल से स्वच्छंद जैसे शब्द आए हैं। अत: छंद शब्द के मूल में गति का भाव है।
किसी वाङमय की समग्र सामग्री का नाम साहित्य है। संसार में जितना साहित्य मिलता है ’ ऋग्वेद ’ उनमें प्राचीनतम है। ऋग्वेद की रचना छंदोबद्ध ही है। यह इस बात का प्रमाण है कि उस समय भी कला व विशेष कथन हेतु छंदो का प्रयोग होता था।छंद को पद्य रचना का मापदंड कहा जा सकता है। बिना कठिन साधना के कविता में छंद योजना को साकार नहीं किया जा सकता।
छंद के अंगसंपादित करें
छंद के निम्नलिखित अंग होते हैं -
गति - पद्य के पाठ में जो बहाव होता है उसे गति कहते हैं।यति - पद्य पाठ करते समय गति को तोड़कर जो विश्राम दिया जाता है उसे यति कहते हैं।तुक - समान उच्चारण वाले शब्दों के प्रयोग को तुक कहा जाता है। पद्य प्रायः तुकान्त होते हैं।मात्रा - वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे मात्रा कहते हैं। मात्रा २ प्रकार की होती है लघु और गुरु। ह्रस्वउच्चारण वाले वर्णों की मात्रा लघु होती है तथा दीर्घउच्चारण वाले वर्णों की मात्रा गुरु होती है। लघु मात्रा का मान १ होता है और उसे। चिह्न से प्रदर्शित किया जाता है। इसी प्रकार गुरु मात्रा का मान मान २ होता है और उसे ऽ चिह्न से प्रदर्शित किया जाता है।गण - मात्राओं और वर्णों की संख्या और क्रम की सुविधा के लिये तीन वर्णों के समूह को एक गण मान लिया जाता है। गणों की संख्या ८ है - यगण (।ऽऽ), मगण (ऽऽऽ),तगण (ऽऽ।), रगण (ऽ।ऽ), जगण (।ऽ।), भगणh (ऽ।।),नगण (।।।) और सगण (।।ऽ)।
गणों को आसानी से याद करने के लिए एक सूत्र बना लिया गया है- यमाताराजभानसलगा। सूत्र के पहले आठ वर्णों में आठ गणों के नाम हैं। अन्तिम दो वर्ण ‘ल’ और ‘ग’ छन्दशास्त्र के दग्धाक्षर (पिंगल के अनुसार झ, ह, र, भ, और ष ये पाँचों अक्षर, जिनका छंद के आरंभ में रखना वर्जित है, इन पाँचों को दग्धराक्षर कहते हैं।) हैं। जिस गण की मात्राओं का स्वरूप जानना हो उसके आगे के दो अक्षरों को इस सूत्र से ले लें जैसे ‘मगण’ का स्वरूप जानने के लिए ‘मा’ तथा उसके आगे के दो अक्षर- ‘ता रा’ = मातारा (ऽऽऽ)।
‘गण’ का विचार केवल वर्ण वृत्त में होता है मात्रिक छन्द इस बंधन से मुक्त होते हैं।
। ऽ ऽ can ऽ । ऽ । । । ऽ
य मा ता रा ज भा न स ल गा
गणचिह्नउदाहरण CC's aप्रभावयगण (य)।ऽऽनहानाशुभमगण (मा)ऽऽऽआजादीशुभतगण (ता)ऽऽ।चालाकअशुभरगण (रा)ऽ।ऽपालनाअशुभजगण (ज)।ऽ।करीलअशुभभगण (भा)ऽ।।बादलशुभनगण (न)।।।कमलशुभसगण (स)।।ऽकमलाअशुभ
छंद के प्रकार
- मात्रिक छंद ː जिन छंदों में मात्राओं की संख्या निश्चित होती है उन्हें मात्रिक छंद कहा जाता है। जैसे - दोहा, रोला,सोरठा, चौपाई
- वर्णिक छंद ː वर्णों की गणना पर आधारित छंद वर्णिकछंद कहलाते हैं। जैसे - घनाक्षरी, दण्डक, मंदाक्रांता
- वर्णवृत ː सम छंद को वृत कहते हैं। इसमें चारों चरणसमान होते हैं और प्रत्येक चरण में आने वाले लघु गुरुमात्राओं का क्रम निश्चित रहता है। जैसे - द्रुतविलंबित,मालिनी
- मुक्त छंदː भक्तिकाल तक मुक्त छंद का अस्तित्व नहीं था, यह आधुनिक युग की देन है। इसके प्रणेता सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' माने जाते हैं। मुक्त छंद नियमबद्ध नहीं होते, केवल स्वछंद गति और भावपूर्ण यति ही मुक्त छंद की विशेषता हैं।
- मुक्त छंद का उदाहरण -
- वह आत है
- दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता।
- पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
- चल रहा लकुटिया टेक,
- मुट्ठी-भर दाने को, भूख मिटाने को,
- मुँह फटी-पुरानी झोली का फैलाता,
- दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता।
छंदों के कुछ प्रकार
दोहा
दोहा मात्रिक छंद है। यह अर्द्ध सम मात्रिक छंंद कहते हैं । दोहे में चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों (प्रथम तथा तृतीय) चरण में 13-13 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) चरण में 11-11 मात्राएँ होती हैं। सम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना आवश्यक होता है। दोहे के मुख्य 23 प्रकार हैं:- 1.भ्रमर, 2.सुभ्रमर, 3.शरभ, 4.श्येन, 5.मण्डूक, 6.मर्कट, 7.करभ, 8.नर, 9.हंस, 10.गयंद, 11.पयोधर, 12.बल, 13.पान, 14.त्रिकल 15.कच्छप, 16.मच्छ, 17.शार्दूल, 18.अहिवर, 19.व्याल, 20.विडाल, 21.उदर, 22.श्वान, 23.सर्प। उदाहरण -
- रात-दिवस, पूनम-अमा, सुख-दुःख, छाया-धूप।
- यह जीवन बहुरूपिया, बदले कितने रूप॥
दोही
दोही दोहे का ही एक प्रकार है। इसके विषम चरणों में १५-१५ एवं सम चरणों में ११-११ मात्राऐं होती हैं।उदाहरण-
- प्रिय पतिया लिख-लिख थक चुकी,मिला न उत्तर कोय।
- सखि! सोचो अब में क्या करूँ,सूझे राह न कोय।।
रोला
रोला मात्रिक सम छंद होता है। इसके प्रत्येक चरण में २४ मात्राएँ होती हैं। उदाहरण -
- यही सयानो काम, राम को सुमिरन कीजै।
- पर-स्वारथ के काज, शीश आगे धर दीजै॥
सोरठा
सोरठा अर्ध्दसम मात्रिक छंद है और यह दोहा का ठीक उलटा होता है। इसके विषम चरणों चरण में 11-11 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं। विषम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्राका होना आवश्यक होता है। उदाहरण -
- जो सुमिरत सिधि होय, गननायक करिबर बदन।
- करहु अनुग्रह सोय, बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥
चौपाई
चौपाई मात्रिक सम छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएँ होती हैं। सिंह विलोकित, पद्धरि, श्रंगार, अरिल्ल,अड़िल्ल, पादाकुलक आदि छंद चौपाई के समान लक्षण वाले छंद हैं।उदाहरण -
- बंदउँ गुरु पद पदुम परागा।
- सुरुचि सुबास सरस अनुराग॥
- अमिय मूरिमय चूरन चारू।
- समन सकल भव रुज परिवारू॥
कुण्डलिया
कुण्डलिया विषम मात्रिक छंद है। इसमें छः चरण होते हैं अौर प्रत्येक चरण में २४ मात्राएँ होती हैं। दोहों के बीच एक रोलामिला कर कुण्डलिया बनती है। पहले दोहे का अंतिम चरणही रोले का प्रथम चरण होता है तथा जिस शब्द सेकुण्डलिया का आरम्भ होता है, उसी शब्द से कुण्डलियासमाप्त भी होता है। उदाहरण -
- कमरी थोरे दाम की, बहुतै आवै काम।
- खासा मलमल वाफ्ता, उनकर राखै मान॥
- उनकर राखै मान, बँद जहँ आड़े आवै।
- बकुचा बाँधे मोट, राति को झारि बिछावै॥
- कह गिरिधर कविराय, मिलत है थोरे दमरी।
- सब दिन राखै साथ, बड़ी मर्यादा कमरी॥
गीतिका (छंद)
गीतिका (छंद) मात्रिक सम छंद है जिसमें २६ मात्राएँ होती हैं। १४ और १२ पर यति तथा अंत में लघु -गुरु आवश्यक है। इस छंद की तीसरी, दसवीं, सत्रहवीं और चौबीसवीं अथवा दोनों चरणों के तीसरी-दसवीं मात्राएँ लघु हों तथा अंत में रगण हो तो छंद निर्दोष व मधुर होता है। उदाहरण-
- खोजते हैं साँवरे को,हर गली हर गाँव में।
- आ मिलो अब श्याम प्यारे,आमली की छाँव में।।
- आपकी मन मोहनी छवि,बाँसुरी की तान जो।
- गोप ग्वालों के शरीरोंं,में बसी ज्यों जान वो।।
हरिगीतिका
हरिगीतिका चार चरणों वाला एक सम मात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 16 व 12 के विराम से 28 मात्रायें होती हैं तथा अंत में लघु गुरु आना अनिवार्य है। हरिगीतिका में 16 और 12 मात्राओं पर यति होती है। प्रत्येक चरण के अन्त में रगण आना आवश्यक है। उदाहरण-
- प्रभु गोद जिसकी वह यशोमति,दे रहे हरि मान हैं ।
- गोपाल बैठे आधुनिक रथ,पर सहित सम्मान हैं ॥
- मुरली अधर धर श्याम सुन्दर,जब लगाते तान हैं ।
- सुनकर मधुर धुन भावना में,बह रहे रसखान हैं॥
बरवै
बरवै अर्ध सम मात्रिक छंद है। इसमें प्रथम एवं तृतीय चरण में १२ -१२ मात्राएँ तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में ७-७ मात्राएँ होती हैं। सम चरणों के अंत में जगण होता है।उदाहरण-
- चम्पक हरवा अंग मिलि,अधिक सुहाय।
- जानि परै सिय हियरे,जब कुंभिलाय।।
छप्पय
छप्पय मात्रिक विषम छन्द है। यह संयुक्त छन्द है, जो रोला (11+13) चार पद तथा उल्लाला (15+13) के दो पद के योग से बनता है।उदाहरण-
- डिगति उर्वि अति गुर्वि, सर्व पब्बे समुद्रसर।
- ब्याल बधिर तेहि काल, बिकल दिगपाल चराचर।
- दिग्गयन्द लरखरत, परत दसकण्ठ मुक्खभर।
- सुर बिमान हिम भानु, भानु संघटित परस्पर।
- चौंकि बिरंचि शंकर सहित,कोल कमठ अहि कलमल्यौ।
- ब्रह्मण्ड खण्ड कियो चण्ड धुनि, जबहिं राम शिव धनु दल्यौ।।
उल्लाला
उल्लाला सम मात्रिक छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में 13-13 मात्राओं के हिसाब से 26 मात्रायें तथा 15-13 के हिसाब से 28 मात्रायें होती हैं। इस तरह उल्लाला के दो भेद होते है। तथापि 13 मात्राओं वाले छन्द में लघु-गुरु का कोई विशेष नियम नहीं है लेकिन 11वीं मात्रा लघु ही होती है।15 मात्राओं वाले उल्लाला छन्द में 13 वीं मात्रा लघु होती है। 13 मात्राओं वाला उल्लाला बिल्कुल दोहे की तरह होता है,बस दूसरे चरण में केवल दो मात्रायें बढ़ जाती हैं। प्रथम चरण में लघु-दीर्घ से विशेष फर्क नहीं पड़ता। उल्लाला छन्द को चन्द्रमणि भी कहा जाता है।उदाहरण-
- यों किधर जा रहे हैं बिखर,कुछ बनता इससे कहीं।
- संगठित ऐटमी रूप धर,शक्ति पूर्ण जीतो मही ॥
सवैया
सवैया चार चरणों का समपद वर्णछंद है। वर्णिक वृत्तों में 22 से 26 अक्षर के चरण वाले जाति छन्दों को सामूहिक रूप से हिन्दी में सवैया कहा जाता है।सवैये के मुख्य १४ प्रकार हैं:- १. मदिरा, २. मत्तगयन्द, ३. सुमुखी, ४. दुर्मिल, ५. किरीट, ६. गंगोदक, ७. मुक्तहरा, ८. वाम, ९. अरसात, १०. सुन्दरी, ११. अरविन्द, १२. मानिनी, १३. महाभुजंगप्रयात, १४. सुखी। उदाहरण-
- मानुस हौं तो वही रसखान,बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
- जो पसु हौं तो कहा बस मेरो,चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
- पाहन हौं तो वही गिरि को,जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।
- जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदम्ब की डारन॥
- सेस गनेस महेस दिनेस,सुरेसहु जाहि निरंतर गावैं।
- जाहि अनादि अनंत अखण्ड,अछेद अभेद सुभेद बतावैं॥
- नारद से सुक व्यास रहे,पचिहारे तौं पुनि पार न पावैं।
- ताहि अहीर की छोहरियाँ,छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥
- कानन दै अँगुरी रहिहौं,जबही मुरली धुनि मंद बजैहैं।
- माहिनि तानन सों रसखान,अटा चढ़ि गोधन गैहैं पै गैहैं॥
- टेरि कहौं सिगरे ब्रजलोगनि,काल्हि कोई कितनो समझैहैं।
- माई री वा मुख की मुसकान,सम्हारि न जैहैं,न जैहैं,न जैहैं॥
कवित्त
कवित्त या घनाक्षरी एक वार्णिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में १६, १५ के विराम से ३१ वर्ण होते हैं। प्रत्येक चरण के अन्त में गुरू वर्ण होना चाहिये। छन्द की गति को ठीक रखने के लिये ८, ८, ८ और ७ वर्णों पर यति रहना चाहिये।उदाहरण-
- नाव अरि लाब नहि,उतरक दाब नहि,
- एक बुद्धि आब नहि,सागर अपार में।
- वीर अरि छोट नहि, संग एक गोट नहि,
- लंका लघु कोट नहि, विदित संसार में।।
मधुमालती (छंद)
मधुमालती छंद में प्रत्येक चरण में 14 मात्राएँ होती हैं, अंत में 212 वाचिक भार होता है, 5-12 वीं मात्रा पर लघु अनिवार्य होता है।उदाहरण -
- होंगे सफल,धीरज धरो ,
- कुछ हम करें,कुछ तुम करो ।
- संताप में , अब मत जलो ,
- कुछ हम चलें , कुछ तुम चलो ।।
विजात
विजात छंद के प्रत्येक चरण में 14 मात्राएँ होती हैं, अंत में 222 वाचिक भार होता है, 1,8 वीं मात्रा पर लघु अनिवार्य होता है। उदाहरण -
- तुम्हारे नाम की माला,
- तुम्हारे नाम की हाला ।
- हुआ जीवन तुम्हारा है,
- तुम्हारा ही सहारा है ।।
मनोरम
मनोरम छंद के प्रत्येक चरण में 14 मात्राएँ होती हैं ,आदि में 2 और अंत में 211 या 122 होता है ,3-10 वीं मात्रा पर लघु 1 अनिवार्य है।उदाहरण-
- उलझनें पूजालयों में ,
- शांति है शौचालयों में।
- शान्ति के इस धाम आयें,
- उलझनों से मुक्ति पायें।।
शक्ति (छंद)
शक्ति छंद में 18 मात्राओं के चार चरण होते हैं, अंत में वाचिक भार 12 होता है तथा 1,6,11,16 वीं मात्रा पर लघु 1 अनिवार्य होता है। उदाहरण -
- चलाचल चलाचल अकेले निडर,
- चलेंगे हजारों, चलेगा जिधर।
- दया-प्रेम की ज्योति उर में जला,
- टलेगी स्वयं पंथ की हर बेला ।।
पीयूष वर्ष
पीयूष वर्ष छंद में 10+9=19 मात्राओं के चार चरण होते हैं,अंत में 12 होता है तथा 3,10,17 वीं मात्रा पर लघु 1 अनिवार्य है। यदि यति अनिवार्य न हो और अंत में 2 = 11 की छूट हो तो यही छंद 'आनंदवर्धक' कहलाता है।उदाहरण-
- लोग कैसे , गन्दगी फैला रहे ,
- नालियों में छोड़ जो मैला रहे।
- नालियों पर शौच जिनके शिशु करें,
- रोग से मारें सभी को खुद मरें।।
सुमेरु
विधान - इसके प्रत्येक चरण में 12+7=19 अथवा 10+9=19 मात्राएँ होती हैं ; 12,7 अथवा 10,9 पर यति होतो है ; इसके आदि में लघु 1 आता है जबकि अंत में 221,212,121,222 वर्जित हैं तथा 1,8,15 वीं मात्रा लघु 1 होती है।उदाहरण-
- लहै रवि लोक सोभा , यह सुमेरु ,
- कहूँ अवतार पर , ग्रह केर फेरू।
- सदा जम फंद सों , रही हौं अभीता ,
- भजौ जो मीत हिय सों , राम सीता।।
सगुण (छंद)
सगुण छंद के प्रयेक चरण में 19 मात्राएँ होती हैं , आदि में 1 और अंत में 121 होता है,1,6,11, 16,19 वी मात्रा लघु 1 होती है।उदाहरण -
- सगुण पञ्च चारौ जुगन वन्दनीय ,
- अहो मीत, प्यारे भजौ मातु सीय।
- लहौ आदि माता चरण जो ललाम ,
- सुखी हो मिलै अंत में राम धाम।।
शास्त्र (छंद)
शास्त्र छंद के प्रत्येक चरण में 20 मात्राएँ होती हैं ; अंत में 21 होता है तथा 1,8,15,20 वीं मात्राएँ लघु होती हैं।उदाहरण -
- मुनीके लोक लहिये शास्त्र आनंद ,
- सदा चित लाय भजिये नन्द के नन्द।
- सुलभ है मार प्यारे ना लगै दाम ,
- कहौ नित कृष्ण राधा और बलराम।।
सिन्धु (छंद)
सिन्धु छंद के प्रत्येक चरण में 21 मात्राएँ होती है और 1,8,15 वीं मात्रा लघु 1 होती है।उदाहरण -
- लखौ त्रय लोक महिमा सिन्धु की भारी ,
- तऊ पुनि गर्व के कारण भयो खारी।
- लहे प्रभुता सदा जो शील को धारै ,
- दया हरि सों तरै कुल आपनो तारै।।
बिहारी (छंद)
विधान - इसके प्रत्येक चरण में 14+8=22 मात्राएँ होती हैं , 14,8 मात्रा पर यति होती है तथा 5,6,11,12,17,18 वीं मात्रा लघु 1 होती है l
मापनी - 221 1221 1221 122 गागाल लगागाल लगागाल लगागा मफ़ऊलु मुफाईलु मुफाईलु फ़ऊलुन
उदाहरण - लाचार बड़ा आज पड़ा हाथ बढ़ाओ , हे श्याम फँसी नाव इसे पार लगाओ l कोई न पिता मात सखा बन्धु न वामा , हे श्याम दयाधाम खड़ा द्वार सुदामा l
(11) छंद - दिगपाल / मृदुगति विधान - इस छंद के प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं ; 12,24 मात्रा पर यति होती है , आदि में समकल होता है और 5,8,17,20 वीं मात्रा अविवार्यतः लघु 1 होती है l
मापनी - 221 2122 221 2122 गागाल गालगागा गागाल गालगागा मफ़ऊलु फाइलातुन मफ़ऊलु फाइलातुन
उदाहरण सविता विराज दोई , दिक्पाल छन्द सोई l सो बुद्धि मंत प्राणी, जो राम शरण होई ll रे मान बात मेरी, मायाहि त्यागि दीजै l सब काम छाँड़ि मीता, इक राम नाम लीजै ll
(12) छंद - सारस विधान - इसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं , 12,12 मात्रा पर यति होती है ; आदि में विषम कल होता है और 3,4,9,10,15,16,21,22 वीं मात्राएँ अनिवार्यतः लघु 1 होती हैं l
मापनी - 2112 2112 2112 2112 गाललगा गाललगा गाललगा गाललगा फ़ाइलतुन फ़ाइलतुन फ़ाइलतुन फ़ाइलतुन (अथवा) मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन
उदाहरण भानु कला राशि कला, गादि भला सारस है l राम भजत ताप भजत, शांत लहत मानस है ll शोक हरण पद्म चरण, होय शरण भक्ति सजौ l राम भजौ रान भजौ, राम भजौ राम भजौ ll
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