Thursday, June 18, 2020

गजल दोष

आज यहाँ ग़ज़ल के कुछ दोषों पर प्रकाश डाल रहा हूँ। 
by संदीप द्विवेदी जी 
आभार सहित 

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इक़्फ़ा -

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यह क़ाफ़िये का दोष होता है। दो ऐसे अक्षर जो उच्चारण में समीपवर्ती हों या समान हों और उन्हें लिखा अलग ढंग से जाता हो, उनके वर्ण भिन्न हों जैसे 'सिपाह' और 'सबाह' (पहले में उर्दू की छोटी 'हे' है और दूसरे में बड़ी 'हे') तो यह दोष उत्पन्न होता है। देवनागरी में यह दोष 'केश' के साथ 'शेष' या 'मेष' जैसा क़ाफ़िया लेने से उत्पन्न होता है।

इक़्वा -

=====

यह भी क़ाफ़िये का दोष होता है। रवी* से पहले के अक्षर की मात्रा यदि एक सी न हो तो यह दोष उत्पन्न होता है। जैसे 'गुल' और 'दिल'। गुल पर 'उ' की और दिल पर 'इ' की मात्रा है, या फिर 'रुक' और 'तक' (भले ही दोनों शब्दों में अंतिम अक्षर 'क' है किन्तु पहले शब्द में उकार है और दूसरे में अकार)। यही दोष बढ़ जाने पर ईता दोष को जन्म देता है। (*रवी= काफ़िये का वास्तविक आनुप्रासिक अक्षर जिसके पहले के अक्षरों की मात्रा/ स्वर समान होना आवश्यक है । जैसे की 'नज़र' और 'असर', इनमें 'र' रवी का अक्षर है तथा 'ज़' और 'स' दोनों 'अकार' हैं।)

ईता -

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यह क़ाफ़िये का दोष होता है जिसमें दो ऐसे शब्द जो सानुप्रास न हों उन्हें बढ़ा कर काफ़िया बनाना। यह दो प्रकार का होता है।

ईता-ए-ख़फ़ी (छोटी ईता) -

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इस दोष को हल्का माना जाता है किन्तु दोष तो दोष ही होता है और उससे बचने का प्रयास सदैव करना चाहिए। उदाहरण - ' रुक ' और ' थक' से ' रुकता' और ' थकता' बनाना। यहाँ रवी तो समान है पर उसके पहले मात्रा में साम्य नहीं है और 'ता' बढ़ाया गया है।

ईता-ए-जली (बड़ी ईता) -

================

इस दोष को भारी माना जाता है। जैसे 'ख़ुश' और 'बेह' जो क़त्तई सानुप्रास नहीं हैं, पर 'तर' बढ़ा कर 'ख़ुशतर' और 'बेहतर' बनाना।

तक़ाबुले रदीफ़-

==========

जब मत्ले के अलावा किसी भी शे'र के मिसर-ए-उला (पहले मिसरे) का अंतिम शब्द रदीफ़ के सानुप्रास हो रहा हो अर्थात् रदीफ़ के स्वर अथवा शब्द का अनुप्रासिक अंश अथवा पूरा रदीफ़ पहले मिसरे के अंत में आ रहा हो तो और वह शे'र अकेला कोट किया जाए तो सानुप्रासिकता के कारण मत्ले का भ्रम होता है। ग़ैर मुरद्दफ़ (बिना रदीफ़ की) ग़ज़लों में ऐसे शे'र मत्ले की ठीक बाद हुस्ने मतला के रूप में आने चाहिए अन्यथा रदीफ़ न होते हुए भी उन्हें दोषपूर्ण माना जाएगा।

ऐबे तनाफ़ुर -

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मिसरे में किसी शब्द के अंतिम अक्षर की उसके बाद वाले शब्द के पहले अक्षर से समानता अर्थात एक ही उद्गम का अक्षर होने पर शेर पढ़ते समय उसका उच्चारण परवर्तित हो जाता है इसे ही ऐबे तनाफ़ुर कहते हैं। जैसे - बात + तो = बात्तो, कर+रहा = कर्रहा आदि। हालाँकि यह दोष बहुत हल्का होता है और शे'र कहते वक़्त शाइर अपने उच्चारण से इसे निभा ले जाये तो नगण्य हो जाता है।

शुतुर्गुर्बा -

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एक ही शे'र में जब किसी को दो संबोधन जैसे- 'आप' और 'तुम' दिए जाएँ तो यह शुतुर्गुर्बा दोष कहलाता है। किसी भी हालत में इससे बचना चाहिए।

तख़ालुफ़ -

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शे'र को वज़्न में रखने के लिए किसी शब्द के हिज्जों से छेड़छाड़ करना जैसे - क़िस्म को किसम या फ़िक्र को फ़िकर लिखना। यह अरूज़ के नियमों के विरुद्ध होता है।

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इसके अतिरिक्त ग़ज़ल में अन्य कई दोष होते हैं परन्तु अभी के लिए इतना ही पर्याप्त प्रतीत होता है।

आप सभी ग़ज़लप्रेमियों के सुझाव-सलाह-प्रश्न-समाधान आमंत्रित हैं।

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(अल्लामा सीमाब अकबराबादी लिखित 'राज़-ए-अरूज़' से उद्धृत)

**पूर्ण प्रयास किया है कि लेख त्रुटिरहित हो फिर भी मानवीय चूक संभावित है, अतः अग्रिम क्षमाप्रार्थी हूँ।

 

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इक़्फ़ा -

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यह क़ाफ़िये का दोष होता है। दो ऐसे अक्षर जो उच्चारण में समीपवर्ती हों या समान हों और उन्हें लिखा अलग ढंग से जाता हो, उनके वर्ण भिन्न हों जैसे 'सिपाह' और 'सबाह' (पहले में उर्दू की छोटी 'हे' है और दूसरे में बड़ी 'हे') तो यह दोष उत्पन्न होता है। देवनागरी में यह दोष 'केश' के साथ 'शेष' या 'मेष' जैसा क़ाफ़िया लेने से उत्पन्न होता है।

इक़्वा -

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यह भी क़ाफ़िये का दोष होता है। रवी* से पहले के अक्षर की मात्रा यदि एक सी न हो तो यह दोष उत्पन्न होता है। जैसे 'गुल' और 'दिल'। गुल पर 'उ' की और दिल पर 'इ' की मात्रा है, या फिर 'रुक' और 'तक' (भले ही दोनों शब्दों में अंतिम अक्षर 'क' है किन्तु पहले शब्द में उकार है और दूसरे में अकार)। यही दोष बढ़ जाने पर ईता दोष को जन्म देता है। (*रवी= काफ़िये का वास्तविक आनुप्रासिक अक्षर जिसके पहले के अक्षरों की मात्रा/ स्वर समान होना आवश्यक है । जैसे की 'नज़र' और 'असर', इनमें 'र' रवी का अक्षर है तथा 'ज़' और 'स' दोनों 'अकार' हैं।)

ईता -

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यह क़ाफ़िये का दोष होता है जिसमें दो ऐसे शब्द जो सानुप्रास न हों उन्हें बढ़ा कर काफ़िया बनाना। यह दो प्रकार का होता है।

ईता-ए-ख़फ़ी (छोटी ईता) -

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इस दोष को हल्का माना जाता है किन्तु दोष तो दोष ही होता है और उससे बचने का प्रयास सदैव करना चाहिए। उदाहरण - ' रुक ' और ' थक' से ' रुकता' और ' थकता' बनाना। यहाँ रवी तो समान है पर उसके पहले मात्रा में साम्य नहीं है और 'ता' बढ़ाया गया है।

ईता-ए-जली (बड़ी ईता) -

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इस दोष को भारी माना जाता है। जैसे 'ख़ुश' और 'बेह' जो क़त्तई सानुप्रास नहीं हैं, पर 'तर' बढ़ा कर 'ख़ुशतर' और 'बेहतर' बनाना।

तक़ाबुले रदीफ़-

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जब मत्ले के अलावा किसी भी शे'र के मिसर-ए-उला (पहले मिसरे) का अंतिम शब्द रदीफ़ के सानुप्रास हो रहा हो अर्थात् रदीफ़ के स्वर अथवा शब्द का अनुप्रासिक अंश अथवा पूरा रदीफ़ पहले मिसरे के अंत में आ रहा हो तो और वह शे'र अकेला कोट किया जाए तो सानुप्रासिकता के कारण मत्ले का भ्रम होता है। ग़ैर मुरद्दफ़ (बिना रदीफ़ की) ग़ज़लों में ऐसे शे'र मत्ले की ठीक बाद हुस्ने मतला के रूप में आने चाहिए अन्यथा रदीफ़ न होते हुए भी उन्हें दोषपूर्ण माना जाएगा।

ऐबे तनाफ़ुर -

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मिसरे में किसी शब्द के अंतिम अक्षर की उसके बाद वाले शब्द के पहले अक्षर से समानता अर्थात एक ही उद्गम का अक्षर होने पर शेर पढ़ते समय उसका उच्चारण परवर्तित हो जाता है इसे ही ऐबे तनाफ़ुर कहते हैं। जैसे - बात + तो = बात्तो, कर+रहा = कर्रहा आदि। हालाँकि यह दोष बहुत हल्का होता है और शे'र कहते वक़्त शाइर अपने उच्चारण से इसे निभा ले जाये तो नगण्य हो जाता है।

शुतुर्गुर्बा -

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एक ही शे'र में जब किसी को दो संबोधन जैसे- 'आप' और 'तुम' दिए जाएँ तो यह शुतुर्गुर्बा दोष कहलाता है। किसी भी हालत में इससे बचना चाहिए।

तख़ालुफ़ -

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शे'र को वज़्न में रखने के लिए किसी शब्द के हिज्जों से छेड़छाड़ करना जैसे - क़िस्म को किसम या फ़िक्र को फ़िकर लिखना। यह अरूज़ के नियमों के विरुद्ध होता है।

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इसके अतिरिक्त ग़ज़ल में अन्य कई दोष होते हैं परन्तु अभी के लिए इतना ही पर्याप्त प्रतीत होता है।

आप सभी ग़ज़लप्रेमियों के सुझाव-सलाह-प्रश्न-समाधान आमंत्रित हैं।

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(अल्लामा सीमाब अकबराबादी लिखित 'राज़-ए-अरूज़' से उद्धृत)

**पूर्ण प्रयास किया है कि लेख त्रुटिरहित हो फिर भी मानवीय चूक संभावित है, अतः अग्रिम क्षमाप्रार्थी हूँ।

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